भगवान कृष्ण एक वन से गुजर रहे
थे तभी उनके पांव में एक कांटा लगा
और वो दर्द से कराहते एक पेड़ के
नीचे बैठे, एक शिकारी वंही से
निकला, उसे कृष्ण की कराह किसी
जानवर सी लगी और उसने
शब्दभेदी वाण से तीर चलाया जो
सीखा कृष्ण के पैर में लगा. जब
शिकारी ने कृष्ण को देखा तो वो रो
पड़ा और क्षोभ करने लगा, तब
कृष्ण ने उसे एक कथा सुनाई जब
राम रूप में उन्होंने छुप कर बाली को
मारा था और भील वाही बाली था.
तब बाली चुप हुआ वैकुण्ठ से गरुड़
आये और भगवान सशरीर अपने
धाम सिधार गए.
पांडवो को कृष्ण ने पहले ही अपने
द्वारिका नगर की जिम्मेदारी दे रखी
थी. अर्जुन समस्त वासियो समेत
जैसे ही नगर के बाहर निकले की
नगर समुद्र में डूब गया। अर्जुन
यदुवंश की स्त्रियों व वासियों को
लेकर तेजी से हस्तिनापुर की ओर
चलने लगे। रास्ते में कलयमण के
बचे हुए सैनिक वहां लुटेरों के रूप में
तैयार थे. जब उन्होंने देखा कि
अर्जुन अकेले ही इतने बड़े
जनसमुदाय को लेकर जा रहे हैं तो
धन के लालच में आकर उन्होंने उन
पर हमला कर दिया।
अर्जुन ने अपनी शक्तियों को याद
किया, लेकिन उसकी शक्ति
समाप्त हो गई। अर्जुन जैसे योद्धा
के होते भी भगवान कृष्ण के
नगरवासी लुटे और गोपियों तक को
लुटेरे उठा ले गए। कृष्ण के साथ ही
साड़ी शक्तिया समाप्त हो गई, इसी
पर तुलसीदास जी ने एक दोहा
लिखा है : "तुलसी नर का क्या बड़ा
समय बड़ा बलवान, काबा लूटी
गोपिया वोही अर्जुन वोही बाण."
अर्जुन ने जब ये वेदव्यास को
बताया तब उन्होंने कहा कि जिस
उद्देश्य से तुम्हे शक्तिया प्राप्त
हुई थी वो अब पूरे हुए। अत: अब
तुम्हारे परलोक गमन का समय आ
गया है और यही तुम्हारे लिए
सही है। महर्षि वेदव्यास की बात
सुनकर अर्जुन उनकी आज्ञा से
हस्तिनापुर आए और उन्होंने पूरी
बात महाराज युधिष्ठिर को बता दी।
महर्षि वेदव्यास की बात मानकर
द्रौपदी सहित पांडवों ने राज-पाठ
त्याग कर परलोक जाने का निश्चय
किया। सुभद्रा राजरानी बानी और
कृष्ण की बाकि पत्निया या तो
तपस्या लीं हो गई या सती हो गई।
पांडवों व द्रौपदी ने साधुओं के
वस्त्र धारण किए और स्वर्ग जाने
के लिए निकल पड़े। पांडवों के साथ-
साथ एक कुत्ता भी चलने लगा।
अनेक तीर्थों, नदियों व समुद्रों की
यात्रा करते-करते पांडव आगे बढऩे
लगे। यात्रा करते-करते पांडव
हिमालय तक पहुंच गए। हिमालय
लांघ कर पांडव आगे बढ़े तो उन्हें
बालू का समुद्र दिखाई पड़ा। इसके
बाद उन्होंने सुमेरु पर्वत के दर्शन
किए। उसके बाद एक एक कर के
सारे पांडव मरने लगे केवल और
उनके साथ ही चल रहा एक कुत्ता
जीवित रहा. युधिष्ठिर कुछ ही दूर
चले थे कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के
लिए स्वयं देवराज इंद्र अपना रथ
लेकर आ गए। तब युधिष्ठिर ने इंद्र
से बाकि पांडवो के मरने का कारण
पूछा तो उन्होंने बताया की पांचाली
अर्जुन से ज्यादा मोह के चलते और
तुम्हारे भाई बल युद्धकौशल रूप औ
बुद्धि पर घमंड के कारण सशरीर
स्वर्ग नहीं जा पाये।
युधिष्ठिर ने कहा कि यह कुक्कर
मेरे साथ ही जायेगा इसने मेरा साथ
नहीं छोड़ा, तब कुत्ता यमराज के रूप
में बदल गया। युधिष्ठिर को कुत्ते
से भी संभावना रखने पर आनंदित
हुए। इसके बाद देवराज इंद्र
युधिष्ठिर को अपने रथ में बैठाकर
स्वर्ग ले गए।
युधिष्ठिर को पहले स्वर्ग के धोखे
में नरग ले जाया गया जन्हा उन्हें
किसी के कराहने की आवाज सुनाई
दी, वे सत्यवादी से कुछ देर वहीं
ठहरने के लिए कह रहे थे। युधिष्ठिर
ने जब पूछा की तुम कौन हो तो
उन्होंने पांडव होने का दावा किया।
तब युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा
कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट
जाओ, मेरे यहां रहने से यदि मेरे
भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस
दुर्गम स्थान पर ही रहूंगा। देवदूत ने
यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता
दी।
तब उन्हें बताया गया की सिर्फ एक
झूठ जिसके कारण अश्वत्थामा के
पिता द्रोण मृत्यु को प्राप्त हुए,
तुम्हे भी छल से ही कुछ देर नरक के
दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग
चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर
पहले ही पहुंच गए हैं।
देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर
ने देवनदी गंगा में स्नान किया।
स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर
त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर
लिया। इसके बाद बहुत से महर्षि
उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस
स्थान पर ले गए जहां उनके चारों
भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र,
द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक
विराजमान थे (वह भगवान का
परमधाम था)। युधिष्ठिर ने वहां
भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए।
अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे।
युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण
व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।
युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की
तरह शरीर धारण किए वायु देवता
के पास बैठे थे। कर्ण को सूर्य के
समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा।
नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के
साथ बैठे थे। देवराज इंद्र ने
युधिष्ठिर को बताया कि ये जो
साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे
रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का
जन्म हुआ था। इसके बाद इंद्र ने
महाभारत युद्ध में मारे गए सभी
वीरों के बारे में युधिष्ठिर को
विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार
युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य
संबंधियों को वहां देखकर बहुत
प्रसन्न हुए।
पांडवों के स्वर्गारोहण के इस
प्रसंग के साथ ही महाभारत कथा
समाप्त हो जाती है।
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