भगवान के दर्शन
पूना से नौ मील दूर बाघोली नामक स्थान में एक वेद-वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनको तुकाराम की यह बात ठीक न जंची। तुकाराम जैसे शूद्र जाति वाले के मुख से श्रुत्यर्थबोधक मराठी अभंग निकलें और आब्राह्मण सब वर्णों के लोग उसे संत जानकर मानें तथा पूजें, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आयी। उन्होंने देहू के हाकिम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कहीं चले जाने की आज्ञा दिलायी। इस पर तुकाराम पण्डित रामेश्वर भट्ट के पास गये और उनसे बोले- "मेरे मुख से जो ये अभंग निकलते हैं, सो भगवान पाण्डुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण हैं, ईश्वरवत हैं, आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना छोड़ दूँगा, पर जो अभंग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं, उनका क्या करूँ?" भट्ट जी ने कहा- "उन्हें नदी में डुबा दो।" ब्राह्मण की आज्ञा शिरोधार्य कर तुकाराम ने देहू लौटकर ऐसा ही किया। अभंग की सारी बहियां इन्द्रायणी के दह में डुबो दी गयीं। पर विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा तुकाराम के भगवद्प्रेमोद्गार निषिद्ध माने जायें, इससे तुकाराम के हृदय पर बड़ी चोट लगी। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और विट्ठल मन्दिर के सामने एक शिला पर बैठ गये कि या तो भगवान ही मिलेंगे या इस जीवन का ही अन्त होगा। इस प्रकार हठीले भक्त तुकाराम श्रीपाण्डुरंग के साक्षात दर्शन की लालसा लगाये, उस शिला पर बिना कुछ खाये-पीये तेरह दिन और तेरह रात पड़े रहे। अन्त में भक्तपराधीन भगवान का आसन हिला। तुकाराम के हृदय में तो वे थे ही, अब वे बालवेश धारण करके तुकाराम के समक्ष प्रकट हो गये। तुकाराम उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान ने उन्हें दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया। तत्पश्चात भगवान ने तुकाराम को बतलाया कि- "मैंने तुम्हारे अभंगों की बहियों को इन्द्रायणी के दह में सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तों को दे आया हूँ।" यह कहकर भगवान फिर तुकाराम के हृदय में अन्तर्धान हो गये।
इस सगुण साक्षात्कार के पश्चात तुकाराम महाराज का शरीर पंद्रह वर्ष तक इस भूतल पर रहा और जब तक रहा, तब तक इनके मुख से सतत अमृतवाग्धारा की वर्षा होती रही। इनके स्वानुभवसिद्ध उपदेशों को सुन-सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते थे। सब प्रकार के लोग इनके पास आते थे और सभी को ये अधिकार अनुसार उपदेश देते तथा साधन बतलाते थे। जिस समय इन्द्रायणी में अभंगों की बहियां डुबा दी गयी थीं, उसके कई दिनों बाद वे ही पण्डित रामेश्वर भट्ट पूना में श्रीनागनाथ जी का दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में वे अनगढ़शाह औलिया की बावली में नहाने के लिये उतरे। नहाकर जो ऊपर आये तो एकाएक उनके सारे शरीर में भयानक जलन पैदा हो गयी। वे रोने-पीटने और चिल्लाने लगे। शिष्यों ने बहुत उपचार किया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में जब ज्ञानेश्वर महाराज ने स्वप्न में उन्हें तुकाराम की शरण जाने के लिये कहा। तब वे दौड़कर तुकाराम जी की शरण गये। इस प्रकार रामेश्वर भट्ट जैसे प्रकाण्ड पण्डित, कर्मनिष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण भी तुकाराम जी को महात्मा मानकर उनका शिष्य होने में अपना कल्याण और गौरव मानने लगे। फिर भी तुकाराम जी पण्डित रामेश्वर भट्ट को देवता जानकर प्रणाम करते थे और उन्हें प्रणाम करने से रोकते थे।
छत्रपति शिवाजी की इच्छा
तुकाराम महाराज के सिद्ध उपदेश के अधिकारी बहुत लोग थे। छत्रपति शिवाजी महाराज तुकाराम जी को अपना गुरु बनाना चाहते थे, पर उनके नियत गुरु समर्थ रामदास स्वामी हैं, यह अन्तर्दृष्टि से जानकर तुकाराम ने उन्हें उन्हीं की शरण में जाने का उपदेश दिया। फिर भी शिवाजी महाराज इनकी हरिकथाएं बराबर सुना करते थे।
देहत्याग
तुकाराम महाराज के जीवन में लोगों ने अनेकों चमत्कार भी देखे। संवत 1706 चैत्र कृष्ण द्वितीय के दिन प्रात:काल तुकाराम महाराज इस लोक से विदा हो गये। उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा, वह मृत हुआ भी नहीं। भगवान स्वयं उन्हें सदेह विमान में बैठाकर अपने वैकुण्ठधाम में ले गये। इस प्रकार वैकुण्ठ सिधारने के बाद भी श्री तुकाराम जी महाराज कई बार भगवद्भक्तों के सामने प्रकट हुए। देहू और लोहगांव में तुकाराम महाराज के अनेक स्मारक हैं, परंतु ये स्मारक तो जड़ हैं, उनका जीता-जागता और सबसे बड़ा स्मारक अभंग-समुदाय है। उनकी यह अभंग-वाणी जगत की अमूल्य और अमर आध्यात्मिक सम्पत्ति है। यह तुकाराम महाराज की वांगमयी मूर्ति है।
पूना से नौ मील दूर बाघोली नामक स्थान में एक वेद-वेदान्त के प्रकाण्ड पण्डित तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनको तुकाराम की यह बात ठीक न जंची। तुकाराम जैसे शूद्र जाति वाले के मुख से श्रुत्यर्थबोधक मराठी अभंग निकलें और आब्राह्मण सब वर्णों के लोग उसे संत जानकर मानें तथा पूजें, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आयी। उन्होंने देहू के हाकिम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कहीं चले जाने की आज्ञा दिलायी। इस पर तुकाराम पण्डित रामेश्वर भट्ट के पास गये और उनसे बोले- "मेरे मुख से जो ये अभंग निकलते हैं, सो भगवान पाण्डुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण हैं, ईश्वरवत हैं, आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना छोड़ दूँगा, पर जो अभंग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं, उनका क्या करूँ?" भट्ट जी ने कहा- "उन्हें नदी में डुबा दो।" ब्राह्मण की आज्ञा शिरोधार्य कर तुकाराम ने देहू लौटकर ऐसा ही किया। अभंग की सारी बहियां इन्द्रायणी के दह में डुबो दी गयीं। पर विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा तुकाराम के भगवद्प्रेमोद्गार निषिद्ध माने जायें, इससे तुकाराम के हृदय पर बड़ी चोट लगी। उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और विट्ठल मन्दिर के सामने एक शिला पर बैठ गये कि या तो भगवान ही मिलेंगे या इस जीवन का ही अन्त होगा। इस प्रकार हठीले भक्त तुकाराम श्रीपाण्डुरंग के साक्षात दर्शन की लालसा लगाये, उस शिला पर बिना कुछ खाये-पीये तेरह दिन और तेरह रात पड़े रहे। अन्त में भक्तपराधीन भगवान का आसन हिला। तुकाराम के हृदय में तो वे थे ही, अब वे बालवेश धारण करके तुकाराम के समक्ष प्रकट हो गये। तुकाराम उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान ने उन्हें दोनों हाथों से उठाकर छाती से लगा लिया। तत्पश्चात भगवान ने तुकाराम को बतलाया कि- "मैंने तुम्हारे अभंगों की बहियों को इन्द्रायणी के दह में सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तों को दे आया हूँ।" यह कहकर भगवान फिर तुकाराम के हृदय में अन्तर्धान हो गये।
इस सगुण साक्षात्कार के पश्चात तुकाराम महाराज का शरीर पंद्रह वर्ष तक इस भूतल पर रहा और जब तक रहा, तब तक इनके मुख से सतत अमृतवाग्धारा की वर्षा होती रही। इनके स्वानुभवसिद्ध उपदेशों को सुन-सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते थे। सब प्रकार के लोग इनके पास आते थे और सभी को ये अधिकार अनुसार उपदेश देते तथा साधन बतलाते थे। जिस समय इन्द्रायणी में अभंगों की बहियां डुबा दी गयी थीं, उसके कई दिनों बाद वे ही पण्डित रामेश्वर भट्ट पूना में श्रीनागनाथ जी का दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में वे अनगढ़शाह औलिया की बावली में नहाने के लिये उतरे। नहाकर जो ऊपर आये तो एकाएक उनके सारे शरीर में भयानक जलन पैदा हो गयी। वे रोने-पीटने और चिल्लाने लगे। शिष्यों ने बहुत उपचार किया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। अन्त में जब ज्ञानेश्वर महाराज ने स्वप्न में उन्हें तुकाराम की शरण जाने के लिये कहा। तब वे दौड़कर तुकाराम जी की शरण गये। इस प्रकार रामेश्वर भट्ट जैसे प्रकाण्ड पण्डित, कर्मनिष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण भी तुकाराम जी को महात्मा मानकर उनका शिष्य होने में अपना कल्याण और गौरव मानने लगे। फिर भी तुकाराम जी पण्डित रामेश्वर भट्ट को देवता जानकर प्रणाम करते थे और उन्हें प्रणाम करने से रोकते थे।
छत्रपति शिवाजी की इच्छा
तुकाराम महाराज के सिद्ध उपदेश के अधिकारी बहुत लोग थे। छत्रपति शिवाजी महाराज तुकाराम जी को अपना गुरु बनाना चाहते थे, पर उनके नियत गुरु समर्थ रामदास स्वामी हैं, यह अन्तर्दृष्टि से जानकर तुकाराम ने उन्हें उन्हीं की शरण में जाने का उपदेश दिया। फिर भी शिवाजी महाराज इनकी हरिकथाएं बराबर सुना करते थे।
देहत्याग
तुकाराम महाराज के जीवन में लोगों ने अनेकों चमत्कार भी देखे। संवत 1706 चैत्र कृष्ण द्वितीय के दिन प्रात:काल तुकाराम महाराज इस लोक से विदा हो गये। उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा, वह मृत हुआ भी नहीं। भगवान स्वयं उन्हें सदेह विमान में बैठाकर अपने वैकुण्ठधाम में ले गये। इस प्रकार वैकुण्ठ सिधारने के बाद भी श्री तुकाराम जी महाराज कई बार भगवद्भक्तों के सामने प्रकट हुए। देहू और लोहगांव में तुकाराम महाराज के अनेक स्मारक हैं, परंतु ये स्मारक तो जड़ हैं, उनका जीता-जागता और सबसे बड़ा स्मारक अभंग-समुदाय है। उनकी यह अभंग-वाणी जगत की अमूल्य और अमर आध्यात्मिक सम्पत्ति है। यह तुकाराम महाराज की वांगमयी मूर्ति है।
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